Tuesday, June 16, 2009

खंडित मानव

सदियों से मनुष्य
लड़ता आया है ,
द्वेष और हिंसा की सीढी
चढ़ता आया है ।
कभी श्वेत -
कभी श्याम बनकर ,
कभी अल्लाह
तो कभी राम बनकर ।
कभी जाति के नाम पर
गले काटता रहा ,
हर पल , ख़ुद को
असंख्य टुकडों में बाँटता रहा ।
कभी क्रूरता का देवता बना
मानवता पर कलंक होकर ,
दूरियां बढाता गया
कभी राजा तो कभी रंक होकर ।
जिस दिन
लड़ने के सब कारण
समाप्त हो गए
मनुष्य एक नया रास्ता अपनाएगा ,
ख़ुद ही लडेगा ,
ख़ुद ही बचेगा ,
अपना ही रक्त पीकर
ख़ुद ही को खा जाएगा ।

2 comments:

  1. hey Prachi... grt poem yaar!!!

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  2. grt thots but a bit on d pessimstic side....achhi thot hain n well crafted!!

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