Saturday, October 24, 2009

वापस नीड़ की ऑर....

शरीर थक चुका,
मन ऊब चुका ।|
रात ढल चुकी,
सूरज डूब चुका ।|
किसी को अब अपना हाल बताना है ,
बहुत दिन हुए
अब अपने नीड़ को वापस जाना है ।|

शोहरत के पीछे अंध बने,
रुपयों के पीछे भाग चुके ।|
कुछ अरमानो को तोड़ चुके,
कुछ विश्वासों को दाग चुके ।|
माफ़ी अब कुछ मांगनी हैं,
और खोए प्यार को पाना है ,
अब अपने नीड़ को वापस जाना है ।|

इकले खड़े रह गए हम,
झूठे साथी छूट गए ।|
आँखे भी अब सूनी हैं,
खोखले सपने टूट गए ।|
पुराने लोगों से मिलना है,
नए सपनो को सजाना है,
हाँ
अब अपने नीड़ को वापस जाना है,
अब अपने घर को वापस जाना है ।|

Thursday, July 23, 2009

स्वप्नलोक

छोटी-छोटी आंखों में
बड़े- बड़े सपने सजाते रहे ,
पुराने चुक गए ,
हम नए बनाते रहे ।|
वो कहते हैं कि
सपने यथार्थ नही निरर्थक हैं ,
हम क्या कहें
सपनो के समर्थक हैं ।|
जीवन सत्य है और सपना बुलबुला
कुछ क्षण में फ़ुट जाएगा ,
कुछ क्षण तो बहुत हैं
जीवन तो ना जाने
किस क्षण छूट जाएगा ।|
मत रहो सपनो पर निर्भर ,
परिणाम भोगने होंगे दुष्कर,
किंतु निर्भरता भूल गए हम
सपनो कि दुनिया के भीतर ।|
सपनो कि दुनिया झूठी है,
माया का जादू भर है ,
भले कल्पना मात्र है वो
पर इस दुनिया से बहतर है ।|
स्वप्नलोक में रहने दो ,
मौन रहो अब कहने दो ।|
तुम ही बोलो- जी कर यथार्थ में ,
अब तक हमने है क्या पाया ?
रोये बस , आपस में लड़कर
एक दूजे का खून बहाया ।|
सपनो के बस लेशमात्र को
अगर आज सच कर दोगे ,
तो सोचो इस पुण्य धरा को
प्रेम से न तुम भर दोगे........

Monday, June 29, 2009

एक और स्मारक ...

मेरे शहर में हुआ है
चौथे स्मारक का उदघाटन ,
लो जी..और दो-चार लाख का
हो गया हवन ।
मुझे कभी समझ नही आते
राजनीतिके कानून-कायदे ,
आख़िर क्या हैं
इस स्मारक के फायदे ?
पहले तो यह मदद करेगा
थके-हारे पंछियों को
थोड़ा सुस्ताने में ,
और फिर नए लैंडमार्क से
सुविधा होगी
आस-पास के मुहल्लों का
पता बताने में ।
जैसे -अमुक चौक ,
अमुक गली
और हाँ
स्मारक की यह मूर्ति
चमचों की है सबसे भली ।
रिबन काटने,माला चढाने को
नेताजी को आमंत्रित कर लेते हैं ,
और समारोह के लिए आए
सरकारी पैसे से
अपनी जेब भर लेते हैं ।
नेताजी का नाम खोदकर
एक और मारबल
लगा दिया जाता है ,
स्मारक को तो
कुछ ही दिन में
भुला दिया जाता है ।
साथ में ये स्मारक
साम्प्रदायिक दंगे कराने में
बड़े काम आते हैं ,
दूसरे धर्म जात के
स्मारक की मूर्ति तोड़ दो ,
दंगे अपने-आप शुरू हो जाते हैं ।

लेकिन सोचो
अगर ये पैसे स्मारक पर नही
गरीबों पर खर्च किए जाते ,
तो कुछ अनपढ़ बच्चे
दस दर्जे तक पढ़ पाते ।
भूख से मरने वाले को
जब एक मुट्ठी
अन्न की जरूरत होती है ,
तो उसे निहारती
सड़क पर धुप में खड़ी
किसी महापुरुष की मूर्ति
अपनी लाचारी पर रोती है ।

Thursday, June 25, 2009

खो गई ....

बड़े शहर की धक्का-मुक्की में
मेरी जिंदगी कहीं खो गई है ,
प्यार , दोस्ती के साथ -साथ
हँसी भी लापता हो गई है ।
रिश्ते-नाते पीछे छूट गए हैं
पर ये भीड़ आगे धकेलती है ,
पीछे जाने ही नही देती ,
औपचारिकताएं इतनी हैं कि
दिल कि बात जुबान तक
आने ही नही देती ।
इमारतें , सड़कें , दुकाने

सब कुछ इतना बड़ा है
कि इंसानियत छोटी हो गई है ,
हाँ.....इस बड़े शहर में
मेरी जिंदगी कहीं खो गई है ।

कंप्यूटर के साथ खेलकर
ऊब गए हैं
दोस्त और भाई-बहन याद आते हैं ,
पैसे ढेरों हैं जेब में
पर माँ के हाथ का खाना
नही खरीद पाते हैं ।
मेरे छोटे से घर ,
छोटे से कसबे में ,
कितनी शान्ति ,कितना सुकून था ,
मुझे नए दोस्त बनाने ,
नए रिश्ते गढ़ने का जूनून था ।
लम्बी कारें , a.c. कमरें ,
नियोन और मरकरी कि चकाचोंध
अब मुझे बहला नही पाते ,
इन्टरनेट वाले मेरे दोस्त
मेरे ग़मों को सहला नही पाते ।
इस अंधी दौड़ में भागते हुए
मानवता मशीन हो गई है ,
हाँ ....इस बड़े शहर में
मेरी जिंदगी कहीं खो गई है ।

Monday, June 22, 2009

प्रतिशोध

बूढा ज़मींदार विचारशून्य था । फटी आंखों से दाई की ऑर देख रहा था , जिसने अभी-अभी मृत पुत्र पैदा होने की ख़बर दी थी । यह चौथी बार था । इससे पहले बूढे ज़मींदार के तीन पुत्र पैदा होने के आधे घंटे के भीतर ही चल बसे थे । ऐसे तो यें संतानहीन नही थे , एक पुत्री थी , लगभग १ साल की , किंतु पुत्री किसे चाहिए !
"बिना पुत्र के मेरा वंश कैसे बढेगा ?" - बूढे ज़मींदार ने मन ही मन बुदबुदाया ।
भीतर के कमरे में अपनी २६ वर्षीया पत्नी के पास जाकर बोला - "क्या मैं एक पुत्र का मुह देखे बिना ही मर जाऊँगा ? पहली स्त्री भी पुत्र न दे सकी और न ही तुम । भगवान् ऐसा क्यों कर रहा है ?" प्रसव पीड़ा में भी मुस्कुराती हुई स्त्री बोली - "भगवान् नही मैं कर रही हूँ । आपके चारों पुत्रों को मैंने ही मारा है । "
ज़मींदार का बूढा शरीर अचम्भे और गुस्से से फडफडा रहा था किंतु मुह से एक भी शब्द न फूटा ।
स्त्री बलिष्ठ स्वर में कह रही थी - "ताकि एक बार फिर कोई अय्याश ज़मींदार किसी गरीब , मासूम नौकरानी कि इज्ज़त कि धज्जियाँ न उडाये और वो बेचारी नाबालिग बच्ची मजबूरन उसी घिनौने ज़मींदार से न ब्याही जाए । "
बूढे ज़मींदार के पास क्षमा मांगने के लिए शब्द न थे । उसका शरीर शिथिल पड़ रहा था और देखते ही देखते वह लड़खडाकर ज़मीन पर गिर गया ।

Friday, June 19, 2009

बदलाव

हम सब जानते हैं
समाज को
बदलाव की जरूरत है ,
नफरत से काम नही बनेगा ,
बस
आपसी लगाव की जरूरत है ।
लेकिन शुरुआत
मैं ही क्यूँ करूं ?
मुझे क्या पड़ी है ,
आस-पास देखो
कितनी भीड़ खड़ी है ।
हम क्यूँ भूल जाते है
की हम भी हैं
उसी भीड़ का एक अंग ,
और भीड़ के हर व्यक्ति का
अपने जैसा ही है
सोचने का ढंग ।
अगला तर्क होता है
"अकेला चना
भाढ नही फोड़ सकता है "
लेकिन वही अकेला चना
मिटटी के सहारे
सैंकडों नए चने
पैदा कर सकता है ,
टूटते समाज को
संगठन की और मोड़ सकता है ।
लडाई कितनी भी मुश्किल हो
एक बार
अखाडे में आकर तो देखो ,
फिर वही भीड़ ,
वही सैंकडों चने
तुम्हारे साथ होंगे ,
पहला कदम बढाकर तो देखो ।
बस एक बार
पहला कदम बढाकर तो देखो ।

Tuesday, June 16, 2009

खंडित मानव

सदियों से मनुष्य
लड़ता आया है ,
द्वेष और हिंसा की सीढी
चढ़ता आया है ।
कभी श्वेत -
कभी श्याम बनकर ,
कभी अल्लाह
तो कभी राम बनकर ।
कभी जाति के नाम पर
गले काटता रहा ,
हर पल , ख़ुद को
असंख्य टुकडों में बाँटता रहा ।
कभी क्रूरता का देवता बना
मानवता पर कलंक होकर ,
दूरियां बढाता गया
कभी राजा तो कभी रंक होकर ।
जिस दिन
लड़ने के सब कारण
समाप्त हो गए
मनुष्य एक नया रास्ता अपनाएगा ,
ख़ुद ही लडेगा ,
ख़ुद ही बचेगा ,
अपना ही रक्त पीकर
ख़ुद ही को खा जाएगा ।